यहीं तो दुनियादारी हैं.
कहने को तो हमारे पांच पड़ोसी थे; पर हमारा आना जाना सिर्फ दो घरों में था. बाकि तीन घरों से हमें दूर रहने की हिदायत मिलती थी, क्यूंकि हमारे घर वाले उन्हें अपने बराबरी का नहीं मानते थे. पर हम बच्चें कहाँ ऊँच-नीच देखने वाले थे. हम बच्चों के बराबरी वाले लोग तो उन्हीं ३ घरो में थे. हमारी क्रिकेट टीम तो उन्ही तीन घरो से बनती थी. अब ये बात घर वालों को कौन समझाए. उन्हें तो राजू में उसके चाय बेचने वाले पापा नज़र आते थे और अर्जुन में उसके चपरासी दादा. घर का आलम ये था कि जबान से एक रोड छाप शब्द छिटका , और इधर माँ के ताने शुरू, " अब राजू- अर्जुन के साथ दिन भर रहोगे तो यही सीखोगे ना "
खैर धीरे -धीरे समय बीतता गया . दसवी तक तो हम तीनों पढ़े , फिर मैं आगे की पढ़ाई करने दिल्ली आ गया . दो साल बाद छुटियों में वापस लौटा तो कभी कभी आस पड़ोस के बच्चों को पढ़ा दिया करता था. राजू अपने पापा के चाय के ठेले पर काम करने लगा था. एक दिन जब मैं कहीं से अपनी बाइक पर अपने लम्बे बालों को हवा में लहरातें हुए, मन ही मन खुद को जॉन अब्राहम समझता हुआ, घर वापस लौट रहा था तो सामने लाल साइकिल पर कोई जाता दिखा. साइकिल जानी-पहचानी लग रही थी. साइकिल चलाने वाले को देखकर मुझे साइकिल और मेरा रिश्ता याद आ गया. बारहवी जन्मदिन पर मेरी दादी ने मुझे एक साइकिल भेंट की थी. मैंने तब नयी नयी साइकिल सीखी थी. शाम का बेसब्री से इंतज़ार था, साइकिल जो सभी को दिखानी थी. राजू-अर्जुन दोनों ने बहुत तारीफ कि. २ दिनों बाद राजू ने भी नयी साइकिल खरीदी.
लाल रंग की चमचमाती साइकिल.
मेरे घर वालों को राजू का साइकिल खरीदना तनिक भी नहीं सुहाया. उन्हें चाय वाले के परिवार पर कटाक्ष करने का एक नया मौका मिल गया. मुहँ पर न सही पीछे ही पापा बोले," चाय वाले का बेटा मेरे बेटे से मुकाबला करेगा."
आज लाल साइकिल पर वही राजू था. अपने उम्र से १५ साल ज्यादा दिख रहा था. एकबारगी तो मन किया कि गाड़ी रोक कर हाल चाल पूछ लूं. लेकिन फिर चाह कर भी ब्रेक नहीं लगा पाया. मन की झिझक ने पैर की शक्ति ही सोख ली, ब्रेक लगाने की ताकत ही नहीं बची. रास्ते भर विचारों से मन भारी था. अगले दिन चीनी खरीदने रोड पर निकला तो सामने की दवा की दुकान से राजू चाय के खाली गिलास बटोरता निकला. कुछ पलों के लिए नज़रें भी मिली, फिर उसने नज़रें झुका ली. वो भयावह शुन्य था उसकी आँखों में. लगा जैसे उन आँखों ने उम्मीद भी छोड़ दी है और उमंग भी; उन आँखों में न तो उमंग थी ना ही निराशा; ना इच्छा थी और ना ही दुःख; था तो शिर्फ़ शुन्य.
मैंने भी उसे उस दिन नहीं रोका.
राजू का चेहरा मेरी आखों से नहीं जा रहा था. मैं बार बार अपना ध्यान हटाना चाहता था; पर मेरी सुई तो वही अटकी थी. क्या वो शर्म है जो उसे मुझसे मिलने से रोक रही है. क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वो एक चायवाला है.? क्या मैं एक चाय वाले को दोस्त कह कर छोटा हो जाऊंगा? अगर हाँ तो चाय वाला छोटा क्यूँ है? समाज ने चोरी-डकैती को गलत काम बोल रखा है, राजू वैसे कोई काम तो नहीं करता फिर भी वो छोटा क्यूँ है. अचानक मैंने सोचा, खेत में काम करने वालों को भी तो मैं हेय-दृष्टी से देखता हूँ.
क्यूँ?
क्यूंकि मैंने उनसे ज्यादा पढाई की है, क्या सिर्फ चंद किताबें हमें दूसरों से ऊपर कर देती हैं. पर ऐसा तो आदि काल से चला आ रहा है. ब्राह्मणों को भी सर्वोच्च स्थान इसीलिए मिला क्यूंकि वो चारो वर्णों में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे थे. मेरे मन में द्वन्द चल रहा था. थोड़ी देर बाद मुझे मेरे और राजू के बीच की दुरी का एहसास हुआ. आज अगर राजू को पर्याप्त संसाधन और प्रेरणा मिलती तो शायद वो भी मेरी जगह होता. अब आपके पड़ोस का लड़का इतना महान तो है नहीं की खुद से ही सब कुछ पढ़ ले, वर्ना आज फैराडे इतना विशिस्ट नहीं होता.
मुझे बचपन की याद आ गयी. हमारे क्रिकेट ग्राउंड के एक और नाली थी. हमारा नियम ये था कि जो भी गेंद उस नाली में मरेगा वही वो गेंद निकलेगा. बच्चे भगवन का रूप क्यूँ होते हैं? क्यूंकि उस समय मैंने ये नहीं कहा कि तू चाय वाले का बेटा है, तेरा काम है वो गेंद निकालना. मेरे पापा बड़े अफसर हैं, मैं क्यूँ अपने हाथ गंदे करूँ. जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उनको सिखाया जाता हैं कि ये तुम्हारा हैं और ये पड़ोसी का. ये सही है, वो गलत हैं.
यहीं तो दुनियादारी हैं.
कुछ लोग कहते हैं कि राजू छोटा हैं. बड़े लोगों के बीच उसको उठने- बैठने की तमीज़ नहीं. बात-चीत की नजाकत नहीं. खाने पिने की नफासत नहीं. क्या हम ये नजाकत-नफासत माँ के पेट से सीख के आते हैं? जिस घर में दो जून खाने के लाले हो; वो नफासत सीख कर क्या करेगा. लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं कि हम राजू को एक मनुष्य के रूप में इज्ज़त न करे. जिसने जिंदगी भर भोजपुरी फिल्म देखी हो, वो अल पिनको की क्या बात करेगा. पहली बात तो उसे मौका देना चाहिए; और अगर मौका ना दे पाए तो कम से कम इज्ज़त वाली नज़र ही सही. राजू जैसे लोगों की सहायता के लिए बैठाये गए अफसर सरकारी योजनाओ से ५% पैसे खाएं और फिर भी शान से पूरे शहर में गाड़ी से घूमें. वहीँ अगर राजू अपनी चाय के लिए ४ के बजाये ५ रुपये मांग ले तो हम "लूटता है " कह कर उसे दुत्कार देते हैं.
शायद यहीं दुनियादारी हैं.
बुकर टी वाशिंगटन ने एक बार कहा, "कोई जाति तब तक संपन्न नहीं हो सकती जब तक वह ये ना समझे की खेत जोतने में उतना ही सम्मान है जितना कविता लिखने में". राजू को अपना सर नीचा करने की कोई आवश्यकता नहीं है जब तक वह ईमानदारी से अपना काम करे. कुछ सालों बाद जब मैं छुट्टियों में घर आया तो राजू अपने ओसरे में छोटे बच्चे के साथ खेल रहा था .मुझसे रहा नही गया. जा पहुँचा उसके ओसरे और खली पड़ी चारपाई पर बैठ गया .
"कहो राजू,क्या हाल है?"
"सब आप देख ही रहे है.ये मेरा बेटा है,प्यार से छुटकू बोलते है".
"ये क्या आप आप लगा रखा है.शादी कर ली, बच्चे भी हो गये,मेरी मिठाई कहा है?"
"आप.......तू बैठ!अभी लाता हूँ."
खैर धीरे -धीरे समय बीतता गया . दसवी तक तो हम तीनों पढ़े , फिर मैं आगे की पढ़ाई करने दिल्ली आ गया . दो साल बाद छुटियों में वापस लौटा तो कभी कभी आस पड़ोस के बच्चों को पढ़ा दिया करता था. राजू अपने पापा के चाय के ठेले पर काम करने लगा था. एक दिन जब मैं कहीं से अपनी बाइक पर अपने लम्बे बालों को हवा में लहरातें हुए, मन ही मन खुद को जॉन अब्राहम समझता हुआ, घर वापस लौट रहा था तो सामने लाल साइकिल पर कोई जाता दिखा. साइकिल जानी-पहचानी लग रही थी. साइकिल चलाने वाले को देखकर मुझे साइकिल और मेरा रिश्ता याद आ गया. बारहवी जन्मदिन पर मेरी दादी ने मुझे एक साइकिल भेंट की थी. मैंने तब नयी नयी साइकिल सीखी थी. शाम का बेसब्री से इंतज़ार था, साइकिल जो सभी को दिखानी थी. राजू-अर्जुन दोनों ने बहुत तारीफ कि. २ दिनों बाद राजू ने भी नयी साइकिल खरीदी.
लाल रंग की चमचमाती साइकिल.
मेरे घर वालों को राजू का साइकिल खरीदना तनिक भी नहीं सुहाया. उन्हें चाय वाले के परिवार पर कटाक्ष करने का एक नया मौका मिल गया. मुहँ पर न सही पीछे ही पापा बोले," चाय वाले का बेटा मेरे बेटे से मुकाबला करेगा."
आज लाल साइकिल पर वही राजू था. अपने उम्र से १५ साल ज्यादा दिख रहा था. एकबारगी तो मन किया कि गाड़ी रोक कर हाल चाल पूछ लूं. लेकिन फिर चाह कर भी ब्रेक नहीं लगा पाया. मन की झिझक ने पैर की शक्ति ही सोख ली, ब्रेक लगाने की ताकत ही नहीं बची. रास्ते भर विचारों से मन भारी था. अगले दिन चीनी खरीदने रोड पर निकला तो सामने की दवा की दुकान से राजू चाय के खाली गिलास बटोरता निकला. कुछ पलों के लिए नज़रें भी मिली, फिर उसने नज़रें झुका ली. वो भयावह शुन्य था उसकी आँखों में. लगा जैसे उन आँखों ने उम्मीद भी छोड़ दी है और उमंग भी; उन आँखों में न तो उमंग थी ना ही निराशा; ना इच्छा थी और ना ही दुःख; था तो शिर्फ़ शुन्य.
मैंने भी उसे उस दिन नहीं रोका.
राजू का चेहरा मेरी आखों से नहीं जा रहा था. मैं बार बार अपना ध्यान हटाना चाहता था; पर मेरी सुई तो वही अटकी थी. क्या वो शर्म है जो उसे मुझसे मिलने से रोक रही है. क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वो एक चायवाला है.? क्या मैं एक चाय वाले को दोस्त कह कर छोटा हो जाऊंगा? अगर हाँ तो चाय वाला छोटा क्यूँ है? समाज ने चोरी-डकैती को गलत काम बोल रखा है, राजू वैसे कोई काम तो नहीं करता फिर भी वो छोटा क्यूँ है. अचानक मैंने सोचा, खेत में काम करने वालों को भी तो मैं हेय-दृष्टी से देखता हूँ.
क्यूँ?
क्यूंकि मैंने उनसे ज्यादा पढाई की है, क्या सिर्फ चंद किताबें हमें दूसरों से ऊपर कर देती हैं. पर ऐसा तो आदि काल से चला आ रहा है. ब्राह्मणों को भी सर्वोच्च स्थान इसीलिए मिला क्यूंकि वो चारो वर्णों में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे थे. मेरे मन में द्वन्द चल रहा था. थोड़ी देर बाद मुझे मेरे और राजू के बीच की दुरी का एहसास हुआ. आज अगर राजू को पर्याप्त संसाधन और प्रेरणा मिलती तो शायद वो भी मेरी जगह होता. अब आपके पड़ोस का लड़का इतना महान तो है नहीं की खुद से ही सब कुछ पढ़ ले, वर्ना आज फैराडे इतना विशिस्ट नहीं होता.
मुझे बचपन की याद आ गयी. हमारे क्रिकेट ग्राउंड के एक और नाली थी. हमारा नियम ये था कि जो भी गेंद उस नाली में मरेगा वही वो गेंद निकलेगा. बच्चे भगवन का रूप क्यूँ होते हैं? क्यूंकि उस समय मैंने ये नहीं कहा कि तू चाय वाले का बेटा है, तेरा काम है वो गेंद निकालना. मेरे पापा बड़े अफसर हैं, मैं क्यूँ अपने हाथ गंदे करूँ. जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उनको सिखाया जाता हैं कि ये तुम्हारा हैं और ये पड़ोसी का. ये सही है, वो गलत हैं.
यहीं तो दुनियादारी हैं.
कुछ लोग कहते हैं कि राजू छोटा हैं. बड़े लोगों के बीच उसको उठने- बैठने की तमीज़ नहीं. बात-चीत की नजाकत नहीं. खाने पिने की नफासत नहीं. क्या हम ये नजाकत-नफासत माँ के पेट से सीख के आते हैं? जिस घर में दो जून खाने के लाले हो; वो नफासत सीख कर क्या करेगा. लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं कि हम राजू को एक मनुष्य के रूप में इज्ज़त न करे. जिसने जिंदगी भर भोजपुरी फिल्म देखी हो, वो अल पिनको की क्या बात करेगा. पहली बात तो उसे मौका देना चाहिए; और अगर मौका ना दे पाए तो कम से कम इज्ज़त वाली नज़र ही सही. राजू जैसे लोगों की सहायता के लिए बैठाये गए अफसर सरकारी योजनाओ से ५% पैसे खाएं और फिर भी शान से पूरे शहर में गाड़ी से घूमें. वहीँ अगर राजू अपनी चाय के लिए ४ के बजाये ५ रुपये मांग ले तो हम "लूटता है " कह कर उसे दुत्कार देते हैं.
शायद यहीं दुनियादारी हैं.
बुकर टी वाशिंगटन ने एक बार कहा, "कोई जाति तब तक संपन्न नहीं हो सकती जब तक वह ये ना समझे की खेत जोतने में उतना ही सम्मान है जितना कविता लिखने में". राजू को अपना सर नीचा करने की कोई आवश्यकता नहीं है जब तक वह ईमानदारी से अपना काम करे. कुछ सालों बाद जब मैं छुट्टियों में घर आया तो राजू अपने ओसरे में छोटे बच्चे के साथ खेल रहा था .मुझसे रहा नही गया. जा पहुँचा उसके ओसरे और खली पड़ी चारपाई पर बैठ गया .
"कहो राजू,क्या हाल है?"
"सब आप देख ही रहे है.ये मेरा बेटा है,प्यार से छुटकू बोलते है".
"ये क्या आप आप लगा रखा है.शादी कर ली, बच्चे भी हो गये,मेरी मिठाई कहा है?"
"आप.......तू बैठ!अभी लाता हूँ."
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